Wednesday, March 02, 2005

अनुगूँज 7 : बचपन का मेरा सीकिंया मीत

इंद्रजी का आमंत्रण के प्रत्युतर में विलंब का प्रश्न ही कहाँ उठता है। शीर्षक तो ऐसा दे रखा है कि कलम ( की-बोर्ड - मुहावरे में बदलाव की आवश्यकता है) तोङकर लिखने को मन करता है । कलम की बात से याद आया, अभी जिस तरह से गोली-लेखनी ( बाल-पेन ) का चलन है , वैसा आपके या मेरे बचपन में नहीं हुआ करता था । अभी तो लिखो-फेको का जमाना है , या फिर जेल-पेन नहीं मिला तो छोटकु नाराज । भविष्य के बच्चे शाय़द इस तरह जिद्दी नहीं होंगे , सीधे की-बोर्ड पर हाथ साफ करेगें । सैकङों फोंट की सहायता से उसका सुलेख देखने लायक होगा । चाहे कुछ भी हो , आज बचपन का मेरा बेजान सीकिंया मीत पेंसिल के बारे में कहना चाहूँगा । बीती बिसारना नहीं चाहता हूँ, जिसके कारण मैं आज यहाँ हूँ । Akshargram Anugunj


बात उन दिनों की है जब मैं एल.के.जी. या यु.के.जी. में पङता था, उस समय बाल-पेन का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता था । पेन भी नही मिलता था मुझे ,सो दूसरों का देखकर ललचा जाता था । ऐसी बात नहीं की गरीबी थी , हम तीनों भाई बहन में मैं ज्यादा भुल्लकर था । आज कलम दिया कि दो दिन में गायब । सो पेन बंद और रुल-पेंसिल (एच.बी.) चालु हो गया । जब नया पुरा लंबा पेंसिल भी खो दिया तब पेंसिल काट कर दिया जाने लगा । मैं तो महान था ही , हमारे क्लास के सहपाठियों में भी विद्यार्थियों के सारे गुण अलग अलग परिमाणों में रहे होंगे । मेरे बको ध्यानम् का फायदा दुसरे किसी कि काक चेष्टा को मिलता होगा । नियमतः एक दिन आधा कटा हुआ पेंसिल भी गायब हो गया । माँ के धैर्य का बाँध टुट गया । माँ थोङा गुस्साकर एक अनोखा उपाय ढुँढ निकाली । मुझे काला धागे का बङा रील लाने को कही । कई धागे को मिलाकर पतला डोरा बनायी। मैं आज्ञाकारी बालक की तरह सामने खङा था । माँ मुझे कमीज उपर करने को कही और उसी धागे से कमर का नाप ली आधा कटा हुआ पेंसिल लाकर पेंसिल के दूसरे छोर पर खाँच बनायी । अब धागे को कमर में बाँध दी । बाँधने के बाद लंबा सा धागा झुल रहा था । माँ धागे को पेंसिल के खाचें में बाँध दी और पेंसिल डाल दी पाकेट में । जा बेटा , तेरा पेंसिल अब नहीं खोएगा । स्कुल जाने लगा वैसे ही । क्लास में लिखते समय पेंसिल को बाहर कर लिखता उसी तरह से धागा से बँधा हुआ । कुछ दिन ऐसे ही चला , हाँ खेलते समय झट से पेंसिल बाहर आ जाता और फट से मैं भी उसे भीतर कर लेता । मैं ठहरा खोजी रचनात्मक दिमागी । फिर एक दिन मैंने पता कर ही लिया कि माँ की पेंसिल में गांठ लगाने की क्या विधि है । बस और क्या था , खेलने से पहले मैंने नख-दंत की सहायता से उसे खोल लिया, और दौङ पङा उन्मुक्त मैदान की और । खुल जा सिम-सिम तो सीख लिया था लेकिन बाँधने का गांठ मंत्र न सीखा। अक्कर बक्कर का मंत्र पढा, मतलब किसी तरह से गाँठ लगाकर फिर पेंसिल को पाकेट में डाल लिया । अब अपना बाँधा हुआ गाँठ न तो खोल सकता था न ही पेंसिल के खाँच पर वह फिट ही बैठा , थोङा ढीला सा लग रहा था । डाँट पङेगी इसलिए माँ को कहा भी नहीं। मगर होनी को कौन रोक सकता है । एक दिन माँ जान ली की मेरा पेंसिल फिर खो गया है। मैं तो निश्चित था कि फिर बँधा पेंसिल कमर की डोरी में और ज्यादा गाँठे पङेगी , मार भी पङ सकती है । मगर आशा के विपरीत, इस बार माँ चेतावनी देकर नयी पेंसिल हाथ में दे दी । भगवान को तो पता नहीं धन्यवाद दिया की नहीं ,मगर माँ के पास पेंसिल न खोने की कसम खायी ।उसके बाद से बहुत हद तक सुधर गया था मैं ।


मगर आपलोग तो जानते ही हैं कि कसम तोङने के लिए भी होते हैं । भाई साहब , अभी तक पुरी तरह नहीं सुधरा हूँ । कभी कीमती कलम खोने पर याद आ जाती है कमर की काली डोरी । अगर मोबाइल फोन और कंपनी आई.डी. कार्ड की तरह पैन लटकाने का प्रचलन हो तो पक्का पैन लटकाकर चलुँगा ।

मेरा पार्कर पेन कमीज के पाकेट से झांककर यह सब स्क्रीन पर लिखता देखकर खुश हो रहा होगा ।

मगर कान में एक बात धीरे से कहूँ इंद्रजी , बचपन का अधकटा पेंसिल सबसे कीमती था ।