Monday, February 28, 2005

Bihari – the write thing - 6 (लोग–तंत्र, – झुलो और झुलाओ)

बचपन में सरकारी स्कुल के हम पढाकु कुछ युँ भी खेला करते थे । दो लङके दो तरफ खङे हो जाते और बीच मे एक तीसरे कम वजन के लङके को हाथ-पैर पकङ कर झुलाते रहते । फिर झुलाते समय ये पंक्तियाँ भी गाते रहते ,

तोहरे मइयों ना झुलेलको ,
तोहरे बापो ना झुलेलको,
तोहरे हमहीं झुलैछी रे ।।

हमारे बिहार की हालत भी कुछ ऐसी ही हो गयी है । जाहिर है कि मेरा कविमन एक लाइन और जोङना चाहता है ।

बिहारी तोहरे किस्मत फेरो झुलेलको रे ।

चुनाव से नजदीकी रुप से जुङे रहने एवं पद की गरिमा बनाए रखने के लिए मैं ज्यादा बोलना नहीं चाहता । लेकिन गजब होता है जब जितने वाले उम्मीदवार के बटन को 30 प्रतिशत वोटर भी नहीं टिपना चाहते । कोई बात नहीं, बहुमतेव-जयते , आशानुरुप परिणाम भी आ गए । देवाशीष जी, लगता है, एग्जिट पोल की कंपनी खोलना नुकसानदेह नहीं है । बिहार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए माहौल बन रहा है , सुस्वागतम् का नवोदय विद्यालय वाला गीत याद आने पर गाऊँगा । लेकिन एक प्रोबलम है । लालटेन धीमा हो गया है, कमल खिला मगर पुरा नहीं , तीर अंधेरे मे लगा नहीं, हाथ की कलाई कमजोर हो गयी। स्वतंत्र उम्मीदवारों के लिए आशा का किरण नहीं, चकाचक हैलोजेन लैंप जल रहा है ।

विकट परिस्थिति में, मिसाइल मैन अगर यहाँ लाँच पैड स्थापित करे तो विकास-पक्षेपास्त्र का एक और श्रेय उनको मिलेगा, मगर यह लज्जाजनक स्थिति होगी । तन ढकने को कपङा नहीं है , नहीं तो घुँघट काढने में ही भलाई है हमारी।

कुछ भी हो हवा का रुख बदल रहा है। मगर ठीक से पता नहीं चल रहा है ये पुरिया है कि पछिया । पवन दिशामापी चक्कर काट रहा है । मेरा माथा भी इसी यंत्र में फँसा हुआ है । फँसे रहने का शौक नहीं है मुझे , असल में समझ में नहीं आता है कि नये स्टाइल का बहुदलीय लोकतंत्र किस कोण से बहुजन हितार्थ है । भारत या उसका बच्चा बिहार और उसका लोग-तंत्र क्या ऐसे ही खादी के पालने में झुलता रहेगा। क्रांतिकारी गंभीर चिंतन-मनन कर ही रहा था कि बेचारा नौकर बगल में आकर खङा हो गया, हाथ में खाली गैलन लेकर । मिट्टी के तेल लाना था , सो मैनें 45 रूपये दे दिए , सिर्फ 1 लीटर लाने के लिए ।