Monday, July 09, 1990

कविता की अर्थी

नून-तेल के दायरे से
निकली जब जिन्दगी ।

माल असबाब भरे पड़े थे
भविष्य के गोदामों में ।

महफिल की वाह वाही से
थके थे कान वहाँ पर ।

टकटकी लगा अब भी
चाँद को देख रहा था ।

कल की दिनचर्या बुनकर
आखिर जुलाहा सो गया ।

मस्जिद में बस नमाज पड़ी थी
इधर सपने में वह चीख पड़ा ।

देखा था , कलमों के सेज
पर कविता की अर्थी थी ।