कविता की अर्थी
नून-तेल के दायरे से
निकली जब जिन्दगी ।
माल असबाब भरे पड़े थे
भविष्य के गोदामों में ।
महफिल की वाह वाही से
थके थे कान वहाँ पर ।
टकटकी लगा अब भी
चाँद को देख रहा था ।
कल की दिनचर्या बुनकर
आखिर जुलाहा सो गया ।
मस्जिद में बस नमाज पड़ी थी
इधर सपने में वह चीख पड़ा ।
देखा था , कलमों के सेज
पर कविता की अर्थी थी ।