और नज्म़ जिन्दा रह गये
जिन्दगी थी, मस्ती भी थी,
दौलत थी, इक गश्ती भी थी ।
इक जवानी थी, रुबाब भी था,
दिवानी थी, इक ख्वाब भी था ।
हँसती गलियों में नकाब भी था,
रंगीनियों का एक शबाब भी था ।
जुमेरात शायद वह आबाद भी था,
जुम्मे के रोज़ वह बरबाद भी था ।
उस शाम साक़ी भी साथ न था ,
दो नज्म़ ग़ज़लों का बस याद था ।