Thursday, June 30, 2005

फरमाइशी गीत - लघु कहानी

कैपिटल एक्सप्रेस की सात नंबर स्लीपर में सेठजी का पुरा परिवार जा रहा था । उनलोगों का मस्त फिल्मी गीतों के अंत्याक्षरी दौर चल रहा था जो फिर एकाएक रुक गया । उसी डब्बे में एक अंधा बाबा गाना गाकर भीख माँग रहा था, जो अपना राग अलापते हूए वहाँ पहूँच गया । उसकी आँखें की पुतलियाँ सफेद पत्थर सी थी । पान खाये हूए लाल-काले दाँत बाहर की ओर निकले हूए थे । बाबा के हाथ में बंधी दो घुँघरु, डफली और ताल सब घिसे-पिटे लग रहे थे ।
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गीत के इसी माहौल को जारी रखते हूए सेठ के बङे लङके ने कहा - "बाबा एक बढिया गाना सुनाओ, बैठो यहाँ" - उसके लिए सीट पर एक जगह भी बना दी । बाबा गीत के इस माँग को नहीं समझ पाया ।

"बाबा दो रूपया दूँगा, दिल खुश करनेवाला कुछ गाना सुना दो, पुराना भी चलेगा "- उसने विकल्प दे दिए ।

"का गाऐं, हमको तो बहुत गाना कहाँ आता है ।" - बाबा ने मजबुरी जाहिर की ।

"जो तुमको अच्छा लगता है , बढिया वाला कोई गा दो "- फरमाइशी गीत की माँग पुरजोर हो गयी । सबकी आँखे उसकी और बङी बेसब्री से देख रही थी ।

चलती रेलगाङी की अनवरत आवाज में भी एक चुप्पी थी गाना सुनने के लिए । गले को साफ कर वह गाना गाने के लिए वह शुरू ही हुआ कि जोर से गाने की हिदायत आयी किसी कोने से ।

उसे भी एक कद्रदान मिल गया था , फिर फरमाइशी गीत का माँग भी तो पुरा करना था । वह पुरे ट्रेन में गाया हुआ वही रटा-रटाया दो लाइना गाना फिर जोर-जोर से दुहराने लगा -

" तुम गरीब की सुनो वह तुम्हारी सुनेगा ,
तुम एक पैसा दोगे वह दस लाख देगा ।"

दुबारा गीत की फरमाइश न कर , बङे लङके ने दो रूपये का सिक्का निकालकर उसके हाथ में रख दिए ।