Wednesday, March 16, 2005

अनुगूंज 8 - शिक्षा: आज के परिपेक्ष्य में

आशीषजी, शिक्षा के बारे में चर्चा प्रारंभ कर रहें है सो मैं भी शिक्षा के लिए भिक्षाटन को निकल पङा हूँ । यह तो हमें संस्कारों में मिल हुआ है न गुरूजी के आश्रम से। नवोदय के गुरूजी ने सिखाया कि - बेटा प्रेम एक चीटीं को भी गुरूजी मान लेना चाहिए , सो मेरे जैसा मुढ इस मंत्र को गले के लाकेट में बांधकर घुमता रहता है । इधर कुछ महीनों पहले बलागिंग विधा भी सीख ली है । कभी नए-नए विचार दिमागी तंत्र को हिला देते है तो कभी आन-लाइन पढाई भी हो जाती है । मेरे चिट्ठाकार बंधुगण थोङा-बहुत ज्ञान मेरे झोली में भी डाल देते हैं।

Akshargram Anugunjबरामदे मे अभी एक सज्जन आए हैं। वे माँ के विद्यालय शिक्षा समिति के सचिव हैं, स्कुल के बच्चों को खिचङी खिलाना है न इसलिए सामान खरीदने जाना है । सरकार ने आदेश दे रखा है सो उसका अनुपालन सर्वोपरि है । कितनी दूरदर्शी है हमारी सरकार , जिसे पता है कि भुखे पेट भजन न होए गोपाला । यही सरकार स्कुल चले हम का सुमधुर गीत सुनाकर नंग-धरंग बच्चों को बुला रही है । आओ बेटा आओ , हम जानते थे , तुम जरूर आओगे , पौष्टिक खिचङी की खुशबू जरुर पहुँची है , तुम्हारे झोपङी तक ।

एक दिन फिर सरकार ने स्कुल के नाम दो हजार का चेक भेज दिया एक पार्ट टाइम नारदजी के हाथों से, साथ मे कह गया कि इसी सप्ताह खर्चा करके रिपोर्ट जमा कराना है आफिस में । मगर अभी चेक जमा करने बैंक में कौन जाएगा । 200 विद्यार्थी पर दो शिक्षक , कौन खिचङी पकाने की निगरानी करेगा, कौन पिछला रिपोर्ट लिखेगा । 7वीं के बच्चे आज सोच रहे है कि हिन्दी की नया पाठ आज शुरू होगा । बाकी छह क्लासों के बच्चे तो आतुर हैं ही। आशीषजी, अगर कभी उन बच्चों के चेहरों को देखने का मौका मिले तो पता चलेगा कि उनका भुख खिचङी से ज्यादा नये रंगीन किताबों पर है । दुसरे शिक्षक पसीने से भींग रहे हैं उनको सम्हालने में । खैर दयालु सरकार का चेक आज ही जमा करना है । बैंक के पास में किताब की दुकान पर इतनी भीङ । सिनेमा हाल के सामने खङे रहने वाला दीपक आज किताब की दुकान पर । सुरज पश्चिम में कहीं उगा तो नहीं । पुछने पर पता चला की टीचर का बहाली होगा न , उसी का फारम निकला है । चलो अच्छा हुआ नये शिक्षकों की बहाली होने से काफी आराम हो जाएगा । मजे की बात है की बहाली की घोषणा और चुनाव की संभावना में गणितीय संबंध है । अब निश्चित हो सकते है कि दीपक को किसी पार्टी के कार्यकर्ता का मौसमी रोजगार मिल सकता है । इंटर पास है न सो सर्टिफिकेट का लेमिनेशन भी करा रखा है उसने । दादाजी के रटी रटाई बातों का अब उस पर असर नहीं होता है । उनको आठवीं पास करने पर बुलाकर नौकरी दी थी सरकार के बाबु ने । संस्कार का असर तो संतति पर पङता ही है । भला परिवार का है दीपक सो दूसरे सहपाठी दोस्तों की तरह उसने अभी तक पुलिस की मार नहीं खाई है । मगर रेलवे की गैंगमैन की नौकरी के परिक्षाओं के सिलसिले में वह जुझारु पुरे भारत भुमि को निहार आया है । जब वह दिल्ली जा रहा था तब उसने दो एम.ए. पास लङको को भी उसी परीक्षा में शामिल होते जाते देखा था । एक बार आसाम के छात्रों नें उसे विदेशी शत्रु की तरह उसे मारा भी । मारने वाले छात्र भी आखिर नौकरी करना चाहते थे । बाहर के छात्र अगर घर की नौकरी ले लेंगे तो उनके छिलने के लिए प्याज भी कहाँ बचेगा । उग्रवाद का धंधा दिनोंदिन मंदा हो गया है । केबल टी.वी. के संस्कारी युवक छोटा-मोटा प्रेमभरा संसार चाहते है । प्रेयसी दहेजप्रथा के विपक्ष में प्रीतम समर्पित है । वे पान का दुकान खोल लें या गैरेज खोल लें, दो जुन की रोटी तो मिल ही जाएगी । तो सर्टिफिकेट का क्या होगा , हाँ दादाजी की तरह अपने पोते को दिखाऐंगे ।

पढते हो क्यों कमाने के लिए ,
कमाते हो क्यों,खाने के लिए ।

कमोवेश बात सही लगती है । पढो-पढो , शिक्षित बनों और देश को आगे बढाओ । मगर बेरोजगारों की दौड में, नौकरी की गारंटी, न बाबा न । दुसरा कोई भी धंघा या कारीगरी सिख लो , काम आ जाएगा । बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ तो खुब अच्छे लोगों के लिए है । अधिकतर प्रतिष्ठित संस्थानों से चुने हुए लोग हैं । राष्ट्र के सकल आय में वृद्धी तो जरूर करते है और साथ ही अपने शिक्षा का आंशिक उपयोग का मुक दर्शक बने रहते है । कुछ तो गुप्त नामों से बलागिंग भी करेंगे और सृजनात्मक लेखों में चुप्पी मारेंगे । कुछ दुसरे मधुशाला में जाकर टैक्स जमा करेंगे । उनसे तो भले 5 किलास तक पढा लिखा प्रवासी चुन्नीलाल है जो पंजाब के खेतों में मट्ठा पीकर बासमती उपजाता है । आपने उस दिन रेस्तरां में बिरियानी का जो आर्डर ग्रेजुएट बेयरे को दिया था न वह उसी बेजोङ बासमती चावल का बना था । बासमती के प्रसंग से आपको पेटेंट हनन का प्रसंग याद आ रहा होगा । हल्दी , नीम भी जुट गया न उस लिस्ट में । भाइयों हमारी ज्ञान संपदा की लिस्ट काफी लंबी है । बाकी धुंधली सुची देखना चाहते हैं या चाहते हैं कि विदेशी लोग पहले उस सुची को छान लें ।

धन्य है वे सपूत जो शिक्षा से मातृभुमि की ज्ञान संपदा एवं अन्न संपदा को बढा रहे हैं, और इसे सिरमौर राष्ट्र बनाने के लिए प्रयत्नशील हैं । आशावादी दृष्टीकोण से अवश्य ही कह सकते हैं कि हम शिक्षित थे , हो रहें है और पूर्ण रुपेण हो भी जाऐंगे। जरुरत है अपने अंदर के श्रोतों को जानने का और उनको सही दिशा देने का। मुझे तो शिक्षा का यही एक मात्र स्वरूप दिखता है ।